कनॉट प्लेस के सेंट्रल पार्क के बेंच पर
उंघती ज़िन्दगी, बेपरवाह,बेख़ौफ़,
खोने के लिए उसके पास अब
यादें भी नहीं रही, हाशिये में रहने वालों की
ज़िन्दगी और मौत दोनों ही थोड़ी सस्ती होती हैं
आम ज़िंदगिओं में भला किसको दिलचस्पी
इन्हें भूल जाने में ही सबकी भलाई है
ठीक उस बेउम्मीद समलैंगिक जोड़े के तरह
जो इंतज़ार में है एक क्रन्तिकारी बदलाव के
या वो कूड़ा बटोरता बचपन, ज़िन्दगी की महाभारत में
कर्ण के रथ की तरह फंसा – लाचार, अभिशप्त
या फिर फुटपाथ पे बैठे वो आंकड़े जो एक उम्र से
इस शहर में इंसान का दर्जा पाने की क़तार में हैं
या फिर पटरी पे बैठी वो अर्ध नग्न पगली
जो अपने बेतरतीब बालों सी उलझी
ज़िन्दगी की दुत्कार लिए ताकती रहती है
शहर के शोर भरे सन्नाटे को
या लाल बत्ती पर गाड़ियों की लम्बी क़तारों के बीच
हाथों में फूल, पेन और मैले चेहरों पर
दस रुपये की मुस्कान लिए दिन भर भागते छोटे छोटे पाँव
चलते रहना जिनकी मजबूरी है
या मैनहोल के ज़हरीले अंधेरों में दम तोड़ती
वो अदृश्य ज़िंदगियाँ जिनकी मौत किसी खाते में दर्ज नहीं होती
दिल्ली की चकाचोंध सतह को कुरेद कर देखो तो
शहर की बूढी हड्डियों में समाये सभी नए पुराने घाव
रिसने लगते हैं परत दर परत खून के जमे हुए थपके से काले
इन्हें न छेड़ना ही बेहतर है, हाशिये में बसा ये जुड़वाँ शहर बहुत भोंडा है
राजधानी की TRP घट जाती है फिर कोई झट से एक जादुई लेप पोत देता है
और दिल्ली फिर नयी गाड़ी सी चकाचक सरपट दौड़ने लगती है
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एक शहर ये भी – कविता 7 – रात आईना है …
रात आईना है इस शहर की बेख्वाब आँखों का
शाम ढले जब धुप का आखरी उजाला
पेड़ों की टहनियों में सिमट जाता हैं तो ये शहर
किसी पेंटिंग की तरह रहस्मयी हो जाता है
बची खुची रौशनी लैम्पोस्ट के नीचे
सिमट जाती है और समय अँधेरे कोनों
या भूले बिसरे हाशियों में छिप जाता है
सूखे ठूँठ सी खड़ी इमारतें अपननी थकी आखें
बंद किये अँधेरा ओढ़ अचेत सी सो जाती हैं
और फिर उभरने लगते हैं अक्स उस दिल्ली के
जो दिन में अपनी तन्हाई समेटे ताकती रहती है
टुकड़ों में बंटे एक अजनबी से आसमान को
शहर की इन बिखरी सड़कोंऔर सुनसान
चौराहों पे मैं भी इन्हीं अक्सों में ढूढ़ता हूँ अपना
खोया हुआ वो अक्स जो अपना सा तो है पर
है फिर भी बेगाना, ढिबरियों सी टिमटिमाती
रौशनी में आता है नज़र आता है स्लेटी खंडहरों के
खूँट पे टंगा तनहा सा इक शहर उतार फेंका था
कभी जिसे और आती है नज़र एक सांवली सी नदी
राह भूली बाँवरी सी, पेड़ तोड़ देते हैं क़तारें
स्याह सड़कों के किनारे, चहचहाते डोलते हैं
पंख सी बाहें पसारे, सप्तपर्णी सी महक
उठती है हवा, रात में ही सांस लेता है शहर
थकन की चादर बिछा कर, फ़िक्र ज़माने की छोड़
है कोई सो रहा वो देखो चाँदनी को ओढ़
कुछ ख्वाब औंधे हैं पड़े उस पुराने बरगद परे
गीत कोई गा रहा है याद के पनघट ख़ड़े
सड़क किनारे बैठ पी रहा है कोई ख्वाबों की चिलम,
उठ रहा है धुआं सुलगते आलाव से कहीं
लिए सोंधी सी महक एक गुज़ारे वक़्त की
दिन की दमकती जिल्द में क़ैद सफहों से
झांकते हैं सूखे हुए लम्हे, कुछ भूले हुए
रुकए और मिटटी के सकोरों सी बिखरी
हुयी कुछ यादें, रात आईना है उन्हीं तवारीख़
के टुकड़ों का, तुम भी कभी खाँचो में बंटे उजालों से निकल
थाम लेना स्याह सा कोई इक छोर और फिर मिलना
उस दिल्ली से जो कभी हमारी थी
एक शहर ये भी – कविता 6 – दिल्ली ६
बस तुम्हें ढूढ़ता हूँ

एक शहर ये भी – कविता 5 – महरौली
बचपन में दिल्ली रिज पे रत्ती बटोरा करते थे
कॉलेज में दोस्तों का हाथ थामे किसी टूटी मुंडेर पे बैठे
क़ुतुब मीनार को ताकते या आवारगी के आलम में
युहीं फिरा करते, कीकर, बबूल,बिलाङ्गड़ा, पिलखन
के दरख्तों और जंगली झाड़ियों के बीच
हज़ारों बरसों की यादों को सहेजे मेहरौली की
संकरी गलियाँ, दरगाह, बावड़ी, मस्जिदें और मक़बरे
हमें शहर के शोरशराबे से दूर सुकूं का अहसास दिलाते,
आज फिर सोहनलाल की खस्ता कचौरी खाने निकले तो मन
रबड़ी फालूदा, समोसे चाट पकोड़ी कबाब, नहारी,
कोरमा और खमीरी रोटी की खुशबुओं में खो गया,
अलाई मीनार के पास निगाहें चुड़ैल पापड़ी पर
सदियों से बसे जिन्नो को फिर ढूढ़ने लगी पर
नाग फूल पर जाकर अटक गयीं और फिर
बड़े पीलू की बूढ़ी हड्डियों से सरसराती हुई
बेर के पेड़ में उलझ गयीं, बस यूँही पेड़ों की
परछाईयों में लुकते छिपते तुम कागज़ पर
नामों की लिस्ट बनाने लगे- ढ़ाक, रोंझ,
करील, देसी पापड़ी और न जाने क्या क्या,
तुम्हें पेड़ों से लगाव था और मैं मेहराब, गुम्बद,
दर-ओ -दीवार, झरोखों और जमाली कमाली
के खंडहरों में खो जाना चाहती थी,
जहाज महल, ज़फर महल, औलिया मस्जिद
की रूह को छूना चाहती थी, सैरगाहों, इबादतखानो,
हवेलियों में बीते कल को ढूढ़ना चाहती थी,
मोहम्मद शाह रंगीले की रंगों में रंगना चाहती थी,
मैं इस शहर की नब्ज़ टटोलना चाहती थी,
मेहरौली की वक़्त से भी लम्बी दास्ताँ इन धुल भरे
पत्थरों में ज़िंदा हैं और उसी की नब्ज़ पर हाथ रखे
हम चल पड़े,आँखों में रेत सी चुभती भद्दी नयी इमारतों,
कूड़े के ढेर और झाड़ झंकाड़ के बीच आखरी सांसें लेती,
अतीत की उन अनछुई दस्तानो को परत दर परत खोलने
युहीं घूमते फिरते हम सूरज गुरुब होने से पहले
पहुंचे ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह पर,
सैर-ए-गुल फरोशां की यादों से मन महक उट्ठा ,
लोभान और गुलाब की खुशबू ,पेड़ों पे पंछियों का
कोलाहल, जाली में बंधे मन्नत के धागे, रौशनी की दुआ
के सजदे में झुके सर और क़व्वालों की गूँज से मुबारक
समां में बंधे हम मोहब्बत और अमन की शमा दिल में लिए
शाम के गहराते सायों में घुल गए और यूँ ख़तम हुआ
एक और दिन दिल्ली की गलियों में
एक शहर ये भी – कविता 3 – दिल्ली में बसंत
दिल्ली में बसंत तो हर साल आता है
पर इस बार बहुत सालों बाद
हमारे आँगन की अमराई महकी है
उसी रंग उसी गंध में सराबोर
वो सड़क जो तुम तक पहुँचती थी
नीम की बौर से ढकी है और कुछ दूर
चटख नारंगी सेमल धधक रहा है
तुम्हारे घर की दीवार से सटे टेसू ने यादें
फिर रंग दीं हैं और मन फिर उन्ही
महुआ की रातों में घुल गया है
वहीँ लोदी गार्डन में जहाँ मेरा फेवरेट बेंच
कचनार की गुलाबी महक में डूबा हुआ है
वहीँ दबे पाँव न जाने कब उस गुलाबी बोगनविला ने
डक पोंड के पास वाले तुम्हारे पसंदीदा बेंच को
क्लाद मोने की पेंटिंग में बदल दिया है
दिल्ली में बसंत बिलकुल तुम्हारे प्यार जैसा है –
क्षणिक – अविस्मरणीय
एक शहर ये भी – कविता 2 – हुमायूँ का मक़बरा
सब्ज़ बुर्ज से कई बार हुमायूँ के मक़बरे तक
खामोश रास्तों पर हम कभी कभी युहीं
पैदल ही निकल जाते थे
निजामुद्दीन की हवा में एक खुमार सा है
जिसे लफ़्ज़ों में बयां करना मुश्किल है
एक अजीब सी कशिश, एक खुशबू
शायद उस नीली नदी की जो कभी
पास से गुज़रा करती थी
अमलतास के पेड़ के नीचे बैठ
हम घंटों दूब के क़ालीनों पर उभरते
शाम के सायों को मूक आखों से ताका करते
और परिंदों के कोलाहल के बीच
तन्हाई में लिपटा हुआ संगेमरमर
और बुलिअा पत्थरों से बना हश्त – बहिश्त
बेबस सा ये मक़बरा अपनी रगों में
मुग़ल सल्तनत की महक समेटे
बगीचे की नहरों के पानी में
कुछ ढूढ़ता रहता
और इस बीच आहिस्ता से समय
युहीं कहीं किसी
मेहराब या गुम्बद पे आके थम जाता
जड़ पकड़ लेता दरख्तों की तरह
हम अपने ख्वाबों की परवान को थामे
किसी दर -ओ -दीवार की परछाईं
नापते और अतीत के झरोखों से
छन के आती सूरज की आख़री किरणों
में ज़िन्दगी के मायने खोजते
और फिर हाथों में हाथ दिए
बस्ती की तंग गलियों में निकल जाते
तुम कबाब और बिरयानी की खुशबु में खो जाते
और मैं महबूब ए इलाही के रंगों में रंग जाती
आज बारापुला फ्लाईओवर से
निजामुद्दीन बस्ती की छतों पे सूखते कपड़ो
के पीछे उन्ही रंगों की महक उजले
नीले आसमान में उड़ती नज़र आयी
और मन फिर जा कर अमलतास की उस डाल
से लिपट गया
Adhuure Alfaaz | अधूरे अलफ़ाज़
परछाइयाँ
वीरां गुलिस्तां, उजड़े दरख़्त. खामोश परिंदे
अजनबी सी लगती हैं अब ये दर ओ दीवार,
बोझल साँसे, जिस्म सर्द, अल्फ़ाज़ नश्तर,
निगाहें अंगारे, बयाबान-ए-यास सब कटरे,
मोहल्ले, चौखट, चौबारे, तंग गलियाँ,
वहशी सन्नाटे, बंद खिड़कियों मे गिरफ्ता
ख़ौफ़-ज़दा चेहरे, बे ख़्वाब, बेनूर हैं सारे नज़ारे,
फ़ज़ा-ए-ग़म में सिसकती है ख़ूँ-रेज़ रूह इस शहर की
नफरतों की जंग ने जिसे रातों रात बेवा कर दिया
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ख़ुसरो तेरी तंग गलिओं की महक में उल्झा है यूँ दिल मेरा
के अब तेरे दर पे आके ही होगी मुक़म्मल मेरी ये नज़्म-ए-ज़िन्दगी
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एक अरसे से हूँ क़ैद इसी आईने में
अब तेरे अक्स में घुल जाऊं तो रिहा हो जाऊं
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अक्स
उभरते हैं कुछ अक्स आईने में हर रोज़,
ताकते रहते हैं बेबस से खामोश दीवारों को,
धुंधले, कभी साफ़, कभी खोए खोये से
जैसे के हों किसी ख्वाब में तैरते कोई ख्वाब,
या किसी ना-मुकम्मल दास्ताँ
का इक़्तिबास, या फिर कोई चाह
असीर चंद लफ़्ज़ों में, वो राज़ ए निहाँ,
वो भूले से नग्मात, वो माशूक चेहरे
वो मख़मूर रातें, वो आबरू के दायरे,
वो मज़हब की कटारें, वो दाग़ – ऐे – तन्हाई
वो गिरहें, जाल फरेब निगाहें, वो ख़्वाब
जिनकी ग़ैर-मुमकिन थी तकमील, इन्हीं
अक्सों के सियह सायों में रेज़ा रेज़ा मेरा भी
अक्स डोलता है बंजारा सा, बे रंग, बे नूर,
आइना गिरफ़्त सदियों से
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अधूरे अलफ़ाज़
मुफ़लिसी ऐसी के ग़म भी लेने पड़े उधार
क्या कहेँ किस क़दर क़र्ज़ में डूबा है
गुलशन का कारोबार
आलम ये है के महफिलें अधूरी पल अधूरे अधूरे से सब अल्फाज़
सुकूं अधूरा वफा अधूरी सितम् अधूरे शिक़वे अधूरे अधूरे हैं हर साज़
तमन्ना अधुरी अरमां अधूरे गीत अधूरे रह गयी अधूरी शौक़ ए मुलाक़ात की रात
रहने दो क्या बताएं हाल ए दिल तुमको मेरे दिलबर मेरे ग़म – गुसार
खामोशी तुम समझोगे नहीं और बयां हमसे होगा नहीं
Ek Adhuri Kahani
[Image credit http://abstract.desktopnexus.com/wallpaper/110270/ ]
Chaand : Ek Kavita
Yesterday was full moon night and I could not resist capturing the glorious moon in my camera. I think I am in love again with the moon. Composed these few lines as I stood bathed in its lucid moonbeams.
Aaj yun lagata hai mano
pighal raha hai chand aasman me
chalak rahi hai chandni
har shakh, har zarre, har qatare se,
khamosh hai raat
Bheega sa hai aalam sara
aur kuch bheega sa hai
mann bhi mera
Suno,
kuch gunguna rahi hai chandni
hawaon me kuch sangeet sa hai
tham gayi hai
kuch pal ke liye ye raat
chupse se ghutno ke bal chal kar
chaad aaj intne qareeb aaya hai
ek tashtari
maine bhi rakh de hai
apne dil ke aangan me
kuch tere pyar ki boonden
Tapak kar gir jayen shayad
aur mil jaye meri
beqarar pyasi rooh ko
shayd kuch sakoon
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wo..
वो सराब था के हकीकत
मालूम नहीं
मेरा जुनून था या के कोई ख्वाब
मालूम नहीं
सेहरा की तपती रेत पर थे
उसके क़दमों के निशां
और फलक पर आंच थी उसकी
एक खुशबू सी हवा में थी
दिल में एक याद थी उसकी
अश्कों की तरह बह निकली थी रेत
उठ्ठा दर्द का था एक गुबार
पाँव अंगार हुए थे फिर भी
उसके दीदार का था इन्तेज़ार
दश्त दर दश्त सफ़र करके
आ पहुचे थे उस तक
और फिर ओझल हुआ
आखों से तसव्वुर उसका
है उम्मीद के बरसेगा कोई अब्र
लिए उसकी चाहत की भीनी सी फुहार
और कर जायेगा मुझे
उसके इश्क की बारिश से
फिर इक बार सराबोर
और दे जायेगा यकीन
उसके होने का
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