कुछ समय पहले दिल्ली शहर से जुड़ी यादों को अंग्रेजी की कविताओं में पिरोया था पर हमेशा कुछ कमी सी महसूस होती रही| शायद हिंदी में लिखने की जो चाह थी वो अपनी ओर खींच रही थी ! कुछ पाठकों ने कहा रोमन में लिखिये देवनागरी समझ नहीं आती पर हिंदी भाषा का लुत्फ़ तो देवनागरी में ही आता है इसलिए सोचा एक सेट दिल्ली से जुड़ी कविताओं का देवनारी में भी किया जाए|
मैंने इन कविताओं में अंग्रेजी के कई शब्द इस्तेमाल किये हैं तो ये पूरी तरह से हिंदी में भी नहीं हैं| एक एक्सपेरिमेंट हैं कुछ नया करने का|
मैंने दिल्ली का कायांतरण करीब से देखा है| देखा है इसके बदलते हुए व्यक्तित्व को| रोज़ ज़िंदा रहने की जद्दोजहद, भूख, बेरोज़गारी, बेकारी और रोज़ी रोटी की कभी का ख़तम होने वाली दौड़ के बीच में शहरी सौंदर्यीकरण के उस स्वांग को भी देखा है| धीमे धीमे अपने असली अस्तित्व को खोता ये शहर अब कहीं दिखावे की तमक झमक में खो सा गया है|
अक्सर मुझे एक गाना याद आता है ” सीने में जलन आंखों में तूफ़ान सा क्यों है, इस शहर में हर शक्स परेशान सा क्यों है।”
दिल्ली का ये आधुनिक अवतार अक्सर मुझे बेचैन कर देता है. ज़िन्दगी की ठेलम ठेली, जानलेवा स्मोग, मटमैले दिन और बेगानी रातों के बीच बहती एक नदी जाने किस उम्मीद पर ज़िंदा है| शायद इसे भी उस सुबह की तलाश है जिसके इंतज़ार में हम निगाहें बिछाये बैठे हैं|हर साल मॉनसून में ये नदी अपने होने का एहसास दिलाती है फिर धीरे धीरे वापस अपने वर्तमान रूप में सिमट जाती है|
पर इस सबसे परे कई दिल्ली और भी हैं, अमलतास, गुलमोहर, टेसू, कनक चंपा और कचनार के फूलों से सजी दिल्ली, सप्तपर्णी, शिरीष सी महकती दिल्ली, महबूब ए इलाही के रंग में रंगी दिल्ली, आम के रास के डूबी दिल्ली, कड़क चाय की प्याली सी दिल्ली अमरक सी खट्टी दिल्ली और वहीँ प्राणी दिल्ली की चाट सी चटपटी दिल्ली, और कई ऐसी दिल्ली हैं इस शहर में|
और इन सबके बीच एक दिल्ली जो अब केवल इतिहास के पन्नो, पुरानी हवेलियों, किलों और मक़बरों में सिमट के रह गयी है| दिल्ली की दौड़ती भागती सड़कों से घिरी ये पुरानी इमारतें कई सदियों की धरोहर सहेजे स्मार्ट सिटी में अपनी पहचान खोने के डर से सहमी सी खड़ी आलीशान शॉपिंग मॉल, होटल, बहुमंज़िली इमारतो वाले दफ्तर और रईसों के बंगलों को ताकती रहती हैं|
कई बार युहीं दिल्ली की गलिओं की खाख छानते वो दिन याद आते हैं जब ज़िन्दगी इतनी उलझी हुई नहीं थी| इन कविताओं में कोशिश रहेगी इन्ही नयी पुरानी यादों को संजोने की कोशिश की गयी है | अपनी राय कमैंट्स में ज़रूर दें|
सभी कविताएं ‘एक शहर ये भी’ शीर्षक के साथ पोस्ट की जाएँगी ताकि पढ़ने में आसानी हो| आपके सुझावों का इंतज़ार रहेगा |
मॉर्निंग वॉक
धुएं और धुंध के दरमियाँ
फुटपाथ पर बुझते अलावों से
तपिश बटोरती खामोश निगाहें
ठिठुरते दरख़्तों के तले बैठी
ताक रहीं हैं स्याही में लिपटी
सूनी राहों को
सड़क के उस मोड़ पर समय
शायद थम सा गया है
वहीँ कुछ दूर चाय के स्टाल के करीब
एक शहर करवट बदल रहा है
कुछ जाने पहचाने धुंधले से चेहरे
फैन, बिस्कुट और चाय की प्यालों
के बीच देश पे चर्चा, बीड़ी सिगरट
के नोक पे सुलगते सवाल
एक के लिए रोटी मुद्दा है
और दूसरे के लिए रोज़गार
चौराहे पे नीम के पेड़ पर टंगा
अधमरा सा सूरज, नींद में चलती बसें
और मुँह अँधेरे, कन्धों पर
ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाये,
रोज़ी रोटी की तलाश में
सड़क पर चप्पल घिसते पैर
शहर की सिलवटों में बसी
धूल खायी ज़िंदगियाँ,बर्बाद बचपन
गुमनाम, गुमसुम, खामोश,
ताश के पत्तों सा बिखरता जीवन
– क्राइम एंड पनिशमेंट
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