भोर
कुछ आधे अधूरे ख्वाब
अपनी अलसाई आँखों मी समेटे
सूरज की पहली किरणों की चादर ओढे हुए
बिस्तर की सिलवटों में है
एक जिस्म करवटें ले रहा
तकिये पे शाम के बादलों के साए हैं
लिपटे हुए
नर्म गुलाबी होंठ जैसे ओस से भीगे गुलाब
और गालों पे लालिमा भोर के आकाश सी
हाथों की उँगलियाँ थामे है
डोर रेशमी प्रेम की
और पैरों में झनक
उठते हैं सैकडों स्वर,
जब शरमाकर वो तलवे
आपस में हैं मिलते इठलाकर
लेकर अंगडाई उतरती है ज़मी पर
फिर तुम्हरी मृण्मयी
मिलन की आस दामन में छुपाये
दोपहर
हो चली दोपहरी
अब भी बुन रही है ख्वाब हो
है आस अब भी कि
आएगा कोई संदेसा
पूछती है खुद से
आखीर उनका ये प्रेम है कैसा
उँगलियों में उलझी लटों को
बांधती, विरह से नम
झील सी आँखों से है ताकती
एक चुप्पी सी है शाखों पे
परिंदे खामोश हैं
थम गयी है हवा
थम सा गया है सब जहाँ
पर कहीं भीतर है उठने वाला
इक तूफां
बहुत उमस है,
शायद अब बरसेगा आसमां
लेके आयेंगीं घटायें
मन् में छिपे दुख का सावन
बहुत बरसेंगे ये नयन
लगता शाम ढले
शाम ढल रही है अब देखें क्या होता है ..रात युही गुज़रती है या कोई खबर आती है
Beautiful! I hope you find what you are looking for.
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ye dono hi kavitaayein hamein bahut achchi lagi.
khaaskar ki shaam ka takiye pe milna… bahut hi khuubsurat metaphors ka prayog kiya hai.
duuji kavita ka ant hamein kuch Tagore ki yaad dila gaya.
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good
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Wah! Kya gehrai hai! Kavita itni achchhi hoti hai, ye dekh kar mera bhi kavi banneko dil chahta hai 🙂
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Shukriya ke aap mere blog par aaye aur mujhe protsahit kiya.. yuhin aate rahiye
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Teri aankon ke siva
duniya mein rakhha kya hai……
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❤ glad you stopped by ..
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Pingback: Tikuli Dogra interviewed. Indian Woman Blogger blogs at 'Spinning a yarn of life'.
अच्छा लगा पढ़ कर, इसी तरह लिखते रहिये .
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